
नाथ पंथी योगी महायोगी गुरु गोरक्षनाथ को चारों युगों में विद्यमान, अयोनिज, अमरकाय और सिद्ध महापुरुष मानते हैं। उन्होंने भारत के अलावा तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफगानिस्तान, नेपाल, सिंघल को अपने योग महाज्ञान से आलोकित किया। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार गोरक्षनाथ सतयुग में पेशावर, त्रेता में गोरखपुर, द्वापर में हरमुज (द्वारिका) और कलियुग में गोरखमढ़ी (महाराष्ट्र) में आविभरूत हुए। जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह द्वारा विरचित ‘श्रीनाथ तीर्थावली’ के अनुसार प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में कंकण बंधन गुरु गोरक्षनाथ की कृपा से ही हुआ था।
यद्यपि वैदिक साधना के साथ समानान्तर रूप से प्रवाहित तांत्रिक साधना का समान रूप से शैव, शाक्त, जैन, वैष्णव आदि पर प्रभाव पड़ा, तथापि उनसे सदाचार के नियमों का पालन यथाविधि नहीं हो सकता। चतुर्दिक फैले हुए अनाचार को देख कर गोरखनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार किया। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास को लिखना पड़ा- गोरख भगायो जोगु, भगति भगायो लोगु। भक्ति को भगाने वाले संबोधन से तात्पर्य कदाचित साकारोपासना से है। गुरु गोरखनाथ की भक्ति मुख्य रूप से केवल गुरु तक सीमित है। उन्होंने भक्ति का कहीं विरोध नहीं किया। तुलसी दास के कथन से एक बात स्पष्ट है कि यदि गोरखनाथ जी न होते तो संत साहित्य न होता।
गुरु गोरक्षनाथ और नाथ पंथ की योग साधना एवं क्रिया कलापों की प्रतिक्रिया ही सभी निगरुण एवं सगुणमार्गी सन्तों के साहित्य में स्पष्ट होती है। उस प्रतिक्रिया के प्रवाह में प्राचीन जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म, अस्पृश्यता, ऊँचनीच का भेदभाव मिट गया। योग मार्ग के गुह्य सिद्धान्तों को साकार करके जन भाषा में व्यक्त एवं प्रचलित करना गोरखनाथ जी का समाज के प्रति सबसे बड़ा योगदान था।
उनके विराट व्यक्तित्व के कारण ही अनेक भारतीय तथा अभारतीय सम्प्रदाय नाथ पंथ में अन्तर्मुक्त हो गए। उनके योग द्वारा सिद्धि की प्राप्ति संयमित जीवन और प्राणायाम से परिपक्व देह की प्राप्ति, अन्त में नादावस्था की स्थिति में दिव्य अनुभूति और सबसे समत्व का भाव आदि विशिष्टताओं ने तत्कालीन समाज एवं साधना पद्धतियों को अपने में लपेट लिया। यही कारण था कि जायसी ने गुरु गोरक्षनाथ की महिमा में कहा- ‘जोगी सिद्ध होई तब जब गोरख सौ भेंट’।
कबीर ने भी गोरक्षनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया-
‘कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि।
साषी गोरखनाथ ज्यूं,अमर भये कलि माहि’।।
कबीर ने भी गोरक्षनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया-
‘कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि।
साषी गोरखनाथ ज्यूं,अमर भये कलि माहि’।।
गोरखनाथ जी एवं नाथ सन्तों का ज्ञान किसी शास्त्र-पुराण नहीं अपितु सहज लोकानुभव और लोक व्यवहार का था, जिसे वह जी और भोग रहे थे क्योंकि ब्रह्मचर्य, आसन, प्राणायाम, मुद्राबन्ध, सिद्धावस्था के विविध अनुभव ऐसा कुछ भी नहीं जिसके व्यवहार को छोड़ कर शास्त्र का आधार लेना पड़े। उनका लोकानुभव यज्ञ और पण्डित, ऊंच-नीच आदि की विभाजक रेखा नहीं खींचता। वह मनुष्य मात्र के लिए है।
गोरखनाथ जी द्वारा विर्निदिष्ट तत्वविचार तथा योग साधना को आज भी उसी रूप में समझा जा सकता है। नाथ सम्प्रदाय को गुरु गोरक्षनाथ ने भारतीय मनोवृत्त के अनुकूल बनाया। उसमें जहाँ एक ओर धर्म को विकृत करने वाली समस्त परम्परागत रूढ़ियों का कठोरता से विरोध किया, वहीं सामान्य जन को अधिकाधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रख कर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए योग मार्ग का प्रचार-प्रसार किया।
उनकी साधना पद्धति का संयम एवं सदाचार से सम्बन्धित व्यावहारिक स्वरूप जन-जन मे ंइतना लोकप्रिय हो गया था कि विभिन्न धर्मावलम्बियों, मतावलम्बियों ने अपने धर्म एवं मत को लोकप्रिय बनाने के लिए नाथ पंथ की साधना का मनचाहा प्रयोग किया। नाथ पंथ की योग साधना आज भी प्रासंगिक है। विभिन्न प्रकार की सामाजिक-शारीरिक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सक्षम है।गूढ़ योग साधना आम आदमी तक लाए
गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त अवेद्यनाथ
Source: LiveHindustan.com
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