Thursday, March 24, 2011

श्री नखत सिध बन्न सा



नखत सिद्ध बन्ना सा
राजस्थान के जेसलमेर जिले के गाँव गिरसर की सोलंकी ढनी निवासी मेहजल जी के सुपुत्र गोविंद सिंह जी के कोई ओलद नहीं थी | वे राजपूत जाति से थे | बाबा निरंजन ने क्र्पा करके धुणे की भभूती दी थी | भभूती के प्रताप से गोविंद सिंह सोलंकी के भभूता सिद्ध, शेर सिंह, नरसिंग तथा सिणगारो ने जन्म लिया था | भभूता सिद्ध जी के काली नाड़ी मे शरीर त्यागने के पश्चात जो सगपण भभूता सिद्ध के लिए किया गया था | वहाँ उनके छोटे भाई शेर सिंह का सगपण गाँव चोयण पीड़ी यारी के यहाँ विवाह शुभ लगन मे हुआ था | श्री शेर सिंह जी के पुत्र अलसी सिंह जी के तीन पुत्र हुए | कानाह सिंह जी, जबर सिंह जी तथा प्रलाद सिंह जी | प्रलाद सिंह जी का शादी के दो महीने बाद ही स्वर्गवास हो गया | कानाह सिंह जी के सबसे पहले पुत्री ने जन्म लिया जिसका नाम सुगना कंवर रखा गया | दूसरे नंबर पर नखत सिंह बन्ना सा ने जन्म लिया | उनके बाद भगवान सिंह जी, भीख सिंह जी, रूप सिंह जी, बाबू सिंह जी और जीवण सिंह जी पाँच भाइयों ने जन्म लिया | ये सात बहन भाई थे | कानाह सिंह जी के परिवार मे मांस – मदिरा का नाम तक नहीं लिया जाता अगर कोई संबंधी मदिरा पिया हुआ मिल जाए तो ये लोग उससे कोई बात नहीं करते ये उनकी विषेश नियम धारा है | दादी सा श्रीमति बादल देवी के बताए अनुसार कानाह सिंह जी की धर्म पत्नी का नाम सीरिया देवी था जोकि ग्राम गिरसर की थी | नखत बन्ना सा का जन्म २०११ मे फागुन लगते तीज मंगलवार को हुआ था | नखत बन्ना सा सोलंकी ढनी की मिट्टी मे खेल कूदकर बड़े हुए और २-३ साल होमगार्ड मे भी रहे गाँव मे वफादार – ईमानदार होने के कारण संवत २०२५-२६ मे गेंग का पूरा काम नखत बन्ना सा को सौपा गया था और उनके अंतिम समय तक अकाल राहत के मिस्टरोल नखत बन्ना सा के पास थे |
एक बार नखत बन्ना सा के बीमार होने के कारण काम पर ना जाने के कारण चार-पाँच बन्ना सा की ढनी पहुंचे और हाथ जोड़कर कहा कि बन्ना सा आपके काम पर ना होने के कारण पाँच-सात दिन से हमारी हाजरी भी नहीं भरी गई, तब नखत बन्ना सा ने जवाब दिया कि आप लोग अपनी हाजरियों का मिस्टरोल ले जाओ ओर हमारी बाट मत देखना | हमे तो अब सर्प पकड़ने हैं और हाथ से ऊपर की तरफ इशारा किया “ वो जा रही है सर्प ” ये बन्ना सा के आंखरी शब्द थे | जब गाँव वालों को मिस्टरोल ले जाने को कहा तो अनपढ़ लोग कहने लगे कि आपके इन मिस्टरोल मे झूठ सच होगी तो हम गरीब लोग फंस जाएंगे | लेकिन बन्ना सा ने उनको कहा कि इसमे रत्ती भर भी झूठ नहीं है तुम इन्हे ले जाओ | फिर तीसरे दिन संवत २०२६    के दस्वे दिन चैत महा लगते ही वीरवार को साधारण बुखार मे अपना शरीर त्याग दिया | घर मे हाहाकार मच गया | घर मे सबसे बड़ा लड़का वो भी १८ साल की उम्र मे मामूली बुखार मे चल बसे इससे बढ़कर ओर क्या दुख होगा ? कानाह सिंह जो को इससे बड़ा झटका लगा उनका मन विचलित हो गया | उन्हे इस बात का बेहद अफसोस था कि ४०        साल से दादा भभूता सिद्ध की सेवा तन मन धन से कर रहे थे ओर मेले मे हर साल कालिया नाड़ी हाजिर हुआ जिसका मुझे आज ये फल मिला लेकिन भगवान की मरजी के आगे किसकी चलती है | सेवा पूजा अब दादी ने संभाली लेकिन दादा सा ने उस गम गो भुलवा दिया ओर कहा कि सेवा मत छोडना तुम्हारे घर के आगे मेला लगेगा | तब नखत बन्ना सा के पिता को कुछ आसवशन मिला |
संवत २०३६ अपनी बहन सुगना के मुख बोलकर कहा कि मैं नखत हूँ ओर मेरा स्थान बोरटी के पास बनाओ | एक परिवार मे बच्चे को सर्प ने काट लिया था और वह मर गया था | तब श्री नखत बन्ना सा स्वम वहाँ मोलिया साफा और हाथ मे चुटिया रस्सी लेकर पहुंचे ओर कहा कि मुझे पानी पिलाओ जो वहाँ मोजूद लोगों ने कहा कि भाई यहाँ तो एकलोता लड़का मारा पड़ा है आप पास वाले घर मे पानी पिलो बन्ना सा आँगन मे पहुंचे ओर शव के ऊपर से कपड़ा हटाते हुए कहा कि भाई उठजा इतनी गहरी नींद मत लो, लड़का जीवित खड़ा हो गया और सभी लोग हेरन रह गए ओर पुंछने लगे कि आप कौन है ? तब उन्होने कहा कि मैं कानाह सिंह जी सोलंकी का लड़का हूँ ओर चारणवाला नहर के पास मेरी ढनी है, आपका भला हुआ है तो ढनी के पास मे बोरटी व्रक्ष कि फेरी लगाने इस लड़के को ले आना | इतना कहकर बन्ना सा ने पानी नहीं पिया और घर के बाहर चले गए |  वे लोग पुंछते - पुंछते गए ओर फेरी लगाई तब से वह लड़का भदवे की शूकल पक्ष की चौथ को वहाँ फेरी लगाने आता है और हमेशा आता रहेगा |

नखत बन्ना सा के चमत्कार सुनकर अंधी दादी सा बादल देवी ने कहा “ नखतू लोग कहते है हमारा भला होता है और नखत सिद्ध है, तो मुझे भी आंखे दे दे, मुझे भी विश्वास हो जाएगा की हमारा नखत सिंह सिद्ध हो गया है “ दूसरे दिन प्रातः तीन बजे दादी सा को नखत सिंह ने पूकारा दादी उठ जा तुझे दिखाई देगा ओर बिलोना शुरू कर दे | दादी सा ने पुंछा तू कौन है भाई ? तो बन्ना सा ने जवाब दिया कि मैं नखत हूँ | लेकिन दादी को विश्वास नहीं हुआ और उन्होने कहा वह तो १० साल पहले संसार छोड़ चुका है अब नखतू कहाँ ? दादी सा आप बाहर आजाओ आपने कल याद किया था कि नखत सिद्ध होवे तो मुझे भी आंखे क्यों नहीं देता – मैं आपको आंखे देने आया हूँ | तब दादी सा उठी ओर उन्हे दिखने लगा था | वे बड़ी खुश हुई, सवेरे जब पोतों की बहुए उठी तो दादी सा को देख हंस पड़ी ओर फिर उन्हे हेरनी हुई जब उन्हे मालूम हुआ कि बन्ना सा ने दादी को आंखे दी हैं | संवत २०३६ भदवे की चाँदनी छट का कालिया नाड़ी का मेला पूरा करके जब कानाह सिंह जी घर पहुंचे तब दादी सा बाहर आगाई ओर अपनी आप बीती सुनाई | तब एक दिन काका सा जबर सिंह जी ने कहा मेरी गाय तीन साल से गायब है अगर वो मिल जाए तो नखत सिद्ध का स्थान बना देंगे और उनकी गाय भी मिल गई | उसे देखकर सभी ने बड़ा अचरज किया ओर मान गए कि नखत सिद्ध है लेकिन स्थान को बात को भूल गए | दो दिन बाद जबर सिंह के लड़के के पेट मे दर्द व घुटन सी हो गयी | तब रामूजी सोनार को बुलाया गया | रामूजी सोनार ओर नखत बन्ना सा मे बड़ी घनिशता थी | शुरू मे रामूजी व बन्ना सा ने फोटो भी साथ – साथ खिचवाया हुआ था | रामूजी सोनार के सगपण मे ऊंट भी नखत बन्ना सा ही लेकर गए थे | रामूजी सोनार ने जबर सिंह के लड़के के पेट मे घुटन देखकर कांजी की ढनी मे ज्योत करने को कहा, घरवालो ने ज्योत करके रामूजी को देदी तब नखत बन्ना सा ने बहन सुगना के मुख से कहा कि मेरे स्थान आपने कहकर भी नहीं बनवाया है | क्या बात है ? जब जबर सिंह व कान सिंह ने कुछ दिनों की छूट लेकर स्थान बनाना शुरू किया वहाँ जागरण लगाया | धीरे – धीरे यह मेला विशाल होने लगा | पास मे एक राई के की लड़की के पेट मे फोड़ा हो गया था | वह बस मरने ही वाली थी कि किसी ने सलाह दी कि बन्ना सा की फेरी व प्र्शाद बोल दो, उसने वैसा ही किया उसके पेट मे से एक फिट लंबा जालधर निकाल गया और तीन दिन मे ठीक हो गई |

गुरु गोरखनाथ जी



गुरु गोरखनाथ का समय

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में इस देश में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालंधरनाथ और कृष्णपाद के संबंध में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं।
गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थे; दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे; तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे, फिर संयोगवश ऐसे एक आचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध संसर्ग मुख्य बात थी - संभवतः यह वामाचारी साधना थी;-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।


(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ में डॉ० प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।


(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चचित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्त्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।


(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86।1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।


(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।


(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।


(6) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चौलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।


इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज़’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-


(1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चौदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।


(2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।


(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।


(4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1200 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है। परंतु ऊपर के प्रमाणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है
Source गुरु गोरखनाथ जी
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महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ(मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।
गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, 'महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?' गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, 'क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।' इस पर राजा ने कहा, 'हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।' गोरखनाथ बोले, 'तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।' गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।
कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।
गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ 'गोगामेडी' के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं।


नाथों के नाम
कपिल नाथ जी, सनक नाथ जी, लंक्नाथ रवें जी, सनातन नाथ जी, विचार नाथ जी , भ्रिथारी नाथ जी, चक्रनाथ जी, नरमी नाथ जी, रत्तन नाथ जी, श्रृंगेरी नाथ जी, सनंदन नाथ जी, निवृति नाथ जी, सनत कुमार जी, ज्वालेंद्र नाथ जी, सरस्वती नाथ जी, ब्राह्मी नाथ जी, प्रभुदेव नाथ जी, कनकी नाथ जी, धुन्धकर नाथ जी, नारद देव नाथ जी, मंजू नाथ जी, मानसी नाथ जी, वीर नाथ जी, हरिते नाथ जी, नागार्जुन नाथ जी, भुस्कई नाथ जी, मदर नाथ जी, गाहिनी नाथ जी, भूचर नाथ जी, हम्ब्ब नाथ जी, वक्र नाथ जी, चर्पट नाथ जी, बिलेश्याँ नाथ जी, कनिपा नाथ जी, बिर्बुंक नाथ जी, ज्ञानेश्वर नाथ जी, तारा नाथ जी, सुरानंद नाथ जी, सिद्ध बुध नाथ जी, भागे नाथ जी, पीपल नाथ जी, चंद्र नाथ जी, भद्र नाथ जी, एक नाथ जी, मानिक नाथ जी, गेहेल्लेअराव नाथ जी, काया नाथ जी, बाबा मस्त नाथ जी, यज्यावालाक्य नाथ जी, गौर नाथ जी, तिन्तिनी नाथ जी, दया नाथ जी, हवाई नाथ जी, दरिया नाथ जी, खेचर नाथ जी, घोड़ा कोलिपा नाथ जी, संजी नाथ जी, सुखदेव नाथ जी, अघोअद नाथ जी, देव नाथ जी, प्रकाश नाथ जी, कोर्ट नाथ जी, बालक नाथ जी, बाल्गुँदै नाथ जी, शबर नाथ जी, विरूपाक्ष नाथ जी, मल्लिका नाथ जी, गोपाल नाथ जी, लघाई नाथ जी, अलालम नाथ जी, सिद्ध पढ़ नाथ जी, आडबंग नाथ जी, गौरव नाथ जी, धीर नाथ जी, सहिरोबा नाथ जी, प्रोद्ध नाथ जी, गरीब नाथ जी, काल नाथ जी, धरम नाथ जी, मेरु नाथ जी, सिद्धासन नाथ जी, सूरत नाथ जी, मर्कंदय नाथ जी, मीन नाथ जी, काक्चंदी नाथ जी
Source गुरु गोरखनाथ जी

श्री रामदेवरा जी


रामदेवरा पूर्वज इतिहास
आज से करीब 1000 वर्ष पहले दिल्ली पर तोमर वंशी राजपूत रजा अनंगपाल जी राज्य करते थे यह वंश चन्द्र वंशी था | इसी तोमर वंश में बाबा रामदेव जी से 36 पीढ़ी पहले तोमर नामक एक राजा हुआ करता था | इसी राजा ने अपने नाम से तोमर वंश चलाया और उसी दिन से राजपूत जाति को तुंवर जाति के नाम से जाना जाने लगा इसी वंश में पांडव हुए | यह वंश हमेशा भगवान श्री क्रष्ण की ही पूजा एवं महिमा गाते आ रहे है राजा अनंगपाल भी एक प्रकार से पराक्रमी एवं योग्य राजा थे तथा इनके राज्य में कोई भी दुखी नहीं था | प्रजा हमेशा सुखी जीवन बिताती थी | लक्ष्मी रूप धन की भी कोई कमी नहीं थी |
इस लिए राजा स्वयम प्रजा को सदा खुश देखने में अपनी प्रसन्नता समझते थे | धीरे धीरे समय गुजरता गया राजा अनंगपाल प्रजा के लिए लोकप्रिय राजा बन गये लेकिन उनके कुल की शोभा बढ़ने के लिए पुत्र नहीं था | इसलिए वे थोडा उदासी महसूस किया करते थे |
राजा अनंगपाल के केवल दो कन्यायें ही थी | एक नाम राजकवंर व दूसरी का नाम कमला था | राजकवंर की शादी कनौज के राजा जयचंद्र के साथ की थी तथा दूसरी की शादी अजमेर के चौहान वंशी राजा रामेश्वर के साथ की थी | इस प्रकार से घर में कोई पुत्र नहीं होने के कारण छोटी लड़की कमला के पुत्र प्रथ्विराज चौहान को पुत्र के सामान मानकर अपने पास रखने लगे | समय बीतता गया प्रथ्विराज करीब दस वर्ष का हुआ की एक रात अनंगपाल को आकाशवाणी हुई कि तुम्हारी रानी के गर्भ से तीन पुत्र होंगे | इस प्रकार भगवान के वचन सत्य हुए और उनके तीन पुत्र अमजी, सलोबन जी तम्रपलजी | तीनों पुत्रों की ख़ुशी के मरे अनंगपाल जी सदा खुश रहने लगे | इधर प्रथ्विराज युवा अवस्था में प्रवेश कर गया था और राजनीति का पूर्ण जानकारक थे | अनंगपाल जी के तीनों पुत्रों को बड़े होते हुए देखकर वह जलने लगा क्योकि यह राज्य उनके हाथों  से जा रहा था | वह हमेशा तीनों को हटाना चाहता था | दूसरी और अनंगपाल जी की सबसे बड़ी पुत्री राजकवंर का पुत्र जयचंद्र राठौर भी प्रथ्विराज के ऐश व आराम से जलने लगा | एक दिन अनंगपाल जी ने प्रथ्विराज चौहान को राज्य की देखरेख करने को कहकर अपनी 13 रानियों तथा तीनों पुत्रों सहित अपने सेवकों के साथ तीर्थ पर निकल गये | इधर चौहानों एवं राठौरों के बीच आपसी तनाव बढ़ने लगा | इस फूट को नजर रखते हुए प्रथ्विराज चौहान पर मुहम्मद गोरी ने दिल्ली पर अकर्मण कर दिया मगर प्रथ्विराज चौहान भी बड़े वीर थे क्योकि उनके पास सैनिकों एवं धन की कमी नहीं थी और इस यूध में गोरी को मुह की खानी पड़ी | इस प्रकार से मुहम्मद गोरी ने प्रथ्विराज चौहान पर 17 बार आक्रमण किये लेकिन एक बार भी विजय हाथ नहीं लगी |
इस प्रकार प्रथ्विराज चौहान पर हो रहे बार बार आक्रमणों से चिन्तित होकर महाराज ने तीर्थ यात्रा के 12 वे वर्ष में ही तीर्थ यात्रा से निव्रती लेकर पुनः दिल्ली आना चाह तथा इसकी सूचना प्रथ्विराज चौहान को मिली प्रथिवराज चौहान पहले से ही अनंगपाल की तीनों संतानों को लेकर दुखी था क्योकि उनके सुख चैन एवं राज तिलक के प्रति मन और अधिक लालच में घुस रहा था तथा उसने पहले से ही नाना जी के खे हुए वाक्यों किसी को भी राज्य में मत आने देना वाला अधर मानकर अपने उद्देश्य पूरा करना चाहता था | उधर महाराज अनंगपाल जी अपने राज्य की सीमा तक पुत्रों पत्नी एवं सेवकों सहित आगये थे तथा एक सेवक को प्र्थिविराज द्वारा उनके स्वागत करके राज्य में प्रवेश करने की तयारी के लिए व्याकुल हो रहे थे उधर सेवक स्वागत की तैयारिया सम्बंधित सुचना लेकर वहां पहुंचा | इस प्रकार कि सुचना सुनकर प्रथ्विराज चौहान हंस पड़ा | नाना जी लगते है पागल हो गये है उन्होंने ही तो कहा था कि बेटे यह राज्य तेरा है यहाँ किसी को भी मत आने देना |
मैं अप इनको कैसे आने दूं | इस प्रकार कि सुचना लेकर सेवक उदास होता हुआ महाराजा अनंगपाल जी के पास पहुंचा तथा सारी बात बताई | यह सब सुनकर एक बार तो अनंगपाल दुखी हुए लेकिन महारानी ने जब यह कहा कि हे पति देव अपने दुहिते के मन में थोडा पाप घुस गया है | वह इस राज्य को छोड़ना नहीं चाहता इसलिए उन्हें इस दिल्ली कि गद्दी पर उतराधिकारी नियुक्त कर हम लोग अपनी प्रजा सहित यहाँ से निकल जायेंगे और एक अन्य राज्य स्वतंत्र राज्य कि स्थापना करेंगे | रानी के कहने पर उनहोंने सेवक को भेजकर प्र्थिविराज चौहान को बुलाया और कहा कि एक बार हमे अतिथि मानकर स्वागत सहित अपने दरबार में ले आओ वहा पर राजतिलक देकर हम लोग यहाँ से निकल जायंगे | इस प्रकार से प्रथ्विराज चौहान ने लिखित में लिखवा लेने के बाद स्वागत के साथ ही उनको अतिथि गृह में लगये | अगले दिन प्रात: होते ही रजा अनंगपाल जी राजा महाराजा को पांच दिन आमंत्रित किया | तथा प्रथ्विराज चौहान को राजतिलक देकर अपनी पत्नी तथा पुत्रों सहित निकर ही रहे थे कि दिल्ली की प्रजा ने कहा की हम लोग भी आपके साथ चलेंगे | महाराज के लाख कोशिशे की लेकिन उन्होंने भी हट नहीं छोड़ी और वहां समस्त जनता ने प्रस्थान किया | इस प्रकार से दिल्ली छोड़ने के बाद वे अजमेर के पास स्थित नरेना गये तथा अपने अलग राज्य की स्थापना की और वहां वह बड़ी ख़ुशी के साथ राजा अनंगपाल एवं उनकी प्रजा रहने लगी | उधर मुहम्मद गोरी ने जयचंद्र के साथ मिलकर 18 वी बार प्रथ्विराज चौहान पर आक्रमण कर दिया | यह युद्ध तीन माह तक चला तथा प्रथ्विराज चौहान को हराकर बंदी बना दिया और वहां से कबूल कंधार ले गया | वहां लेजाकर प्रथ्विराज चौहान की आँखें फोड़ कर काल कोठरी में दाल दिया | जहाँ पर उनसे कोई भी नहीं मिल सके लेकिन प्रथ्विराज चौहान के राज कवि एवं बचपन के साथी चन्द्र कवि वरदाई ने सुना की प्रथ्विराज चौहान को मुहम्मद गोरी काबुल कंधार ले गया है तब चन्द्र कवि वहां पहुंचे और अपने राजा को देखकर बहुत दुखी हुए | चन्द्र कवि ने बदला लेने की सोची और बादशाह को कहा की प्रथ्विराज अन्धा होते हुए भी निशाना लगा सकने की बात कही बादशाह बात को अनहोनी समझ कर हंस पड़े | इधर इस हंसी को देखकर कवि आग बबूला हो रहे थे | एक बार पीर कहा अगर आपको विशवास नहीं हो तो परीक्षा लेकर देखले इस बात पर बादशाह सहमत हो गया और परीक्षा लेने के लिए सात तवे लोहे के बांध दिए और बादशाह चार कोस ऊपर बैठ गया | उस समय राज्य के कई योध्धा इकठ्ठे हुए थे तथा वहां पर विराजने के बाद बादशाह कहने लगे कि क्या अंधे भी निशाने लगाने लगे है ?
लोगों की भीड़ को देखकर चन्द्र कवि ने कहा : चार भौश चौविश गज अंगुल अष्ट प्रमाण | ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान ||
इतना सुनते ही प्रथ्विराज चौहान के तरकश से तीर ऐसे निकला जैसे महाभारत के अर्जुन का तीर उस मछली की आँख भेदने की लिए निकला तथा मुहम्मद गोरी को मार डाला | प्रथ्विराज के हाटों मुहम्मद गोरी को मरवाकर अंत में दोनों ही काबुल कंधार में  ही मर गये | यह खबर जब अनंगपाल जी को मालूम चली तो वे दुखी रहने लगे और अंत में राजा अनंगपाल जी का देहांत हो गया | मृत्यु के बाद अनंगपाल जी की पांच पीढ़ी नरेना में रहीं | श्री अनंगपाल जी से पांच पीढ़ी पैदा हुए रणसी जी की संताने वहीँ पर रह रही थी जबकि बाकि के पुत्र ग्वालियर, हरियाणा एवं तवरावती आदि जाकर रहने लगे थे | उनके घर आज भी वहां रह रहे है जबकि रणसी जी के आठ पुत्र हुए जिनके नाम अजमल जी, राजसिंह जी, सलारसिंह, गजेसिंह, मोरजी, केशपालजी, नेणजी तथा धनरूपजी थे |
इशार रणसी जी ने पहले से ही आतंक मचा रखा था और जो भी मुसलमी व्यापारी देखता उसे लूट लेते थे | मगर समय ने चक्र ऐसा खाया कि बादशाहों का जमाना गया और धार्मिक झगडे अपनी सीमा पर कर चुके थे | मुल्ला व काजी बादशाह को हमेशा रणसी जी के बारे में बहकते थे और कहते थे कि रणसी जी अपने इस्लाम धर्म में रोड़ा अटकते हैं लेकिन कुछ ही दिनों बाद रणसी जी ने मुसलमानी वेशभूषा में एक कुटिया में निवास करने वाले साधू के साथ दुर्व्यवहार किया और साधू ने कोढ़ निकलने का श्राप दे दिया | इधर बादशाह ने नरेना पर कई बार अकर्मण किये लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी | जैसे जैसे समय गुजरता गया साधू द्वारा दिया हुआ श्राप सत्य होने लगा रणसी जी के शरीर में जगह जगह गांठे होने लगी और धीरे धीरे पूरा शरीर कोढ़ रोग से भर गया | वे दुखी होकर अपने घर से साधू कर वेश धारण कर निकल गये | जब पीड़ा से करहाते हुए जगह जगह ठहरते हुए अपने इष्ट के दर्शन करने को निकल गये | उन्होंने जगह जगह अपने इष्ट देव द्वारिका पूरी की यात्रा की तथा एक दिन एक पनघट के पास खड़े अपनी पीड़ा से चिल्लाने से उनका गला भी रुंध गया | इतने में पनघट पर एक स्त्री पानी भरने आई उसके घड़े से एक बूँद जल रणसी जी के शरीर पर आकर गिरी और पीड़ा में कमी का अनुभव मिला लैब रणसी जी ने उस नारी से पूंछा तुम कौन हो ? किस घर की नारी हो ? तुम्हारा घर कहाँ है ? इतना पूंछने पर नारी जाति स्वभाविक लज्जा एवं अपरिचित यात्री से वार्तालाप करने में अपने परिचय पता देना लोक मरियादा की दृष्टि से सामयिक भाव अनुचित समझ कर कोई उत्तर नहीं दिया | जो एक कुलीन नारी के लिए स्वभाविक गुण है | जब वह नारी पनघट से पानी लेकर चली तो रणसी जी भी उसके पीछे पीछे चल पड़े और घर पहुंचकर खिवण जी नमक एक संत परवर्ती के एक सज्जन से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए तथा ज्ञात हुआ की वह खिवण जी की स्त्री थी |
खिवण जी ने उनका आदर सत्कार किया रणसी जी ने भी अपनी दुःख भरी कहानी सुनाई जिसको सुनकर खिवण जी की आँखों में आँसू आगये | रणसी जी ने अपने दुःख की निव्रती का उपाय पूंछा तब खिवण जी उन्हें ऋषि के आश्रम ले गये और इन्हें बहार खड़ा करके खुद स्वामी जी के पास पहुंचे और नमस्कार किया तब समय ऋषि प्रसन्न हुए और ऋषि ने कपिल गौं का दूध दुहाय और खापर में लेकर कुछ स्वं पिया तथा बाकि खिवण को देखकर कहा की इसे पीले | तब खिवण ने कहा महाराज मेरा एक साथी बहार खड़ा है आपकी आज्ञा हो तो मैं उसे अन्दर ले आऊ | यह सुनकर ऋषि ने कहा भक्त मेरे पास आने के लिए किसी की कोई रोकटोक नहीं है परन्तु गुरु द्रोही को नहीं लाना और तुम दोनों इस दूध को पीलो | आज्ञा पाकर खिवण जी रणसी जी को बुलाकर अन्दर ले गये और मिलकर दोनों ने दूध पिया | बस उस दूध को पीते ही रणसी का कोढ़ दूर हो गया | शरीर का रंग रूप बदलते ही समय ऋषि ने रणसी को पहचाना और क्रोध में गरज कर बोले खिवण तुमने बड़ा अपराध किया है इसका फल दोनों को भोगना होगा | करोति के आरा से कटकर एक साथ मरे जाओगे | इस प्रकार का श्राप सुनकर खिवण जी भय से कांपते हुए बोले हे ! गुरुदेव मैंने भरी अपराध किया मुझे माफ़ करो मैं आपका शरणागत भक्त हूँ
संसार में मेरा रक्षक नहीं है आप क्रपा करो खिवण की पीड़ा सुनकर समय ऋषि ने कहा भगतों मैं श्राप को वापिस नहीं ले सकता हूँ | लेकिन प्रभाव धरा बदल दी है |
आज से करीब 1000 वर्ष पहले दिल्ली पर तोमर वंशी राजपूत रजा अनंगपाल जी राज्य करते थे यह वंश चन्द्र वंशी था | इसी तोमर वंश में बाबा रामदेव जी से 36 पीढ़ी पहले तोमर नामक एक राजा हुआ करता था | इसी राजा ने अपने नाम से तोमर वंश चलाया और उसी दिन से राजपूत जाति को तुंवर जाति के नाम से जाना जाने लगा इसी वंश में पांडव हुए | यह वंश हमेशा भगवान श्री क्रष्ण की ही पूजा एवं महिमा गाते आ रहे है राजा अनंगपाल भी एक प्रकार से पराक्रमी एवं योग्य राजा थे तथा इनके राज्य में कोई भी दुखी नहीं था | प्रजा हमेशा सुखी जीवन बिताती थी | लक्ष्मी रूप धन की भी कोई कमी नहीं थी |
इस लिए राजा स्वयम प्रजा को सदा खुश देखने में अपनी प्रसन्नता समझते थे | धीरे धीरे समय गुजरता गया राजा अनंगपाल प्रजा के लिए लोकप्रिय राजा बन गये लेकिन उनके कुल की शोभा बढ़ने के लिए पुत्र नहीं था | इसलिए वे थोडा उदासी महसूस किया करते थे |
राजा अनंगपाल के केवल दो कन्यायें ही थी | एक नाम राजकवंर व दूसरी का नाम कमला था | राजकवंर की शादी कनौज के राजा जयचंद्र के साथ की थी तथा दूसरी की शादी अजमेर के चौहान वंशी राजा रामेश्वर के साथ की थी | इस प्रकार से घर में कोई पुत्र नहीं होने के कारण छोटी लड़की कमला के पुत्र प्रथ्विराज चौहान को पुत्र के सामान मानकर अपने पास रखने लगे | समय बीतता गया प्रथ्विराज करीब दस वर्ष का हुआ की एक रात अनंगपाल को आकाशवाणी हुई कि तुम्हारी रानी के गर्भ से तीन पुत्र होंगे | इस प्रकार भगवान के वचन सत्य हुए और उनके तीन पुत्र अमजी, सलोबन जी तम्रपलजी | तीनों पुत्रों की ख़ुशी के मरे अनंगपाल जी सदा खुश रहने लगे | इधर प्रथ्विराज युवा अवस्था में प्रवेश कर गया था और राजनीति का पूर्ण जानकारक थे | अनंगपाल जी के तीनों पुत्रों को बड़े होते हुए देखकर वह जलने लगा क्योकि यह राज्य उनके हाथों  से जा रहा था | वह हमेशा तीनों को हटाना चाहता था | दूसरी और अनंगपाल जी की सबसे बड़ी पुत्री राजकवंर का पुत्र जयचंद्र राठौर भी प्रथ्विराज के ऐश व आराम से जलने लगा | एक दिन अनंगपाल जी ने प्रथ्विराज चौहान को राज्य की देखरेख करने को कहकर अपनी 13 रानियों तथा तीनों पुत्रों सहित अपने सेवकों के साथ तीर्थ पर निकल गये | इधर चौहानों एवं राठौरों के बीच आपसी तनाव बढ़ने लगा | इस फूट को नजर रखते हुए प्रथ्विराज चौहान पर मुहम्मद गोरी ने दिल्ली पर अकर्मण कर दिया मगर प्रथ्विराज चौहान भी बड़े वीर थे क्योकि उनके पास सैनिकों एवं धन की कमी नहीं थी और इस यूध में गोरी को मुह की खानी पड़ी | इस प्रकार से मुहम्मद गोरी ने प्रथ्विराज चौहान पर 17 बार आक्रमण किये लेकिन एक बार भी विजय हाथ नहीं लगी |
इस प्रकार प्रथ्विराज चौहान पर हो रहे बार बार आक्रमणों से चिन्तित होकर महाराज ने तीर्थ यात्रा के 12 वे वर्ष में ही तीर्थ यात्रा से निव्रती लेकर पुनः दिल्ली आना चाह तथा इसकी सूचना प्रथ्विराज चौहान को मिली प्रथिवराज चौहान पहले से ही अनंगपाल की तीनों संतानों को लेकर दुखी था क्योकि उनके सुख चैन एवं राज तिलक के प्रति मन और अधिक लालच में घुस रहा था तथा उसने पहले से ही नाना जी के खे हुए वाक्यों किसी को भी राज्य में मत आने देना वाला अधर मानकर अपने उद्देश्य पूरा करना चाहता था | उधर महाराज अनंगपाल जी अपने राज्य की सीमा तक पुत्रों पत्नी एवं सेवकों सहित आगये थे तथा एक सेवक को प्र्थिविराज द्वारा उनके स्वागत करके राज्य में प्रवेश करने की तयारी के लिए व्याकुल हो रहे थे उधर सेवक स्वागत की तैयारिया सम्बंधित सुचना लेकर वहां पहुंचा | इस प्रकार कि सुचना सुनकर प्रथ्विराज चौहान हंस पड़ा | नाना जी लगते है पागल हो गये है उन्होंने ही तो कहा था कि बेटे यह राज्य तेरा है यहाँ किसी को भी मत आने देना |
मैं अप इनको कैसे आने दूं | इस प्रकार कि सुचना लेकर सेवक उदास होता हुआ महाराजा अनंगपाल जी के पास पहुंचा तथा सारी बात बताई | यह सब सुनकर एक बार तो अनंगपाल दुखी हुए लेकिन महारानी ने जब यह कहा कि हे पति देव अपने दुहिते के मन में थोडा पाप घुस गया है | वह इस राज्य को छोड़ना नहीं चाहता इसलिए उन्हें इस दिल्ली कि गद्दी पर उतराधिकारी नियुक्त कर हम लोग अपनी प्रजा सहित यहाँ से निकल जायेंगे और एक अन्य राज्य स्वतंत्र राज्य कि स्थापना करेंगे | रानी के कहने पर उनहोंने सेवक को भेजकर प्र्थिविराज चौहान को बुलाया और कहा कि एक बार हमे अतिथि मानकर स्वागत सहित अपने दरबार में ले आओ वहा पर राजतिलक देकर हम लोग यहाँ से निकल जायंगे | इस प्रकार से प्रथ्विराज चौहान ने लिखित में लिखवा लेने के बाद स्वागत के साथ ही उनको अतिथि गृह में लगये | अगले दिन प्रात: होते ही रजा अनंगपाल जी राजा महाराजा को पांच दिन आमंत्रित किया | तथा प्रथ्विराज चौहान को राजतिलक देकर अपनी पत्नी तथा पुत्रों सहित निकर ही रहे थे कि दिल्ली की प्रजा ने कहा की हम लोग भी आपके साथ चलेंगे | महाराज के लाख कोशिशे की लेकिन उन्होंने भी हट नहीं छोड़ी और वहां समस्त जनता ने प्रस्थान किया | इस प्रकार से दिल्ली छोड़ने के बाद वे अजमेर के पास स्थित नरेना गये तथा अपने अलग राज्य की स्थापना की और वहां वह बड़ी ख़ुशी के साथ राजा अनंगपाल एवं उनकी प्रजा रहने लगी | उधर मुहम्मद गोरी ने जयचंद्र के साथ मिलकर 18 वी बार प्रथ्विराज चौहान पर आक्रमण कर दिया | यह युद्ध तीन माह तक चला तथा प्रथ्विराज चौहान को हराकर बंदी बना दिया और वहां से कबूल कंधार ले गया | वहां लेजाकर प्रथ्विराज चौहान की आँखें फोड़ कर काल कोठरी में दाल दिया | जहाँ पर उनसे कोई भी नहीं मिल सके लेकिन प्रथ्विराज चौहान के राज कवि एवं बचपन के साथी चन्द्र कवि वरदाई ने सुना की प्रथ्विराज चौहान को मुहम्मद गोरी काबुल कंधार ले गया है तब चन्द्र कवि वहां पहुंचे और अपने राजा को देखकर बहुत दुखी हुए | चन्द्र कवि ने बदला लेने की सोची और बादशाह को कहा की प्रथ्विराज अन्धा होते हुए भी निशाना लगा सकने की बात कही बादशाह बात को अनहोनी समझ कर हंस पड़े | इधर इस हंसी को देखकर कवि आग बबूला हो रहे थे | एक बार पीर कहा अगर आपको विशवास नहीं हो तो परीक्षा लेकर देखले इस बात पर बादशाह सहमत हो गया और परीक्षा लेने के लिए सात तवे लोहे के बांध दिए और बादशाह चार कोस ऊपर बैठ गया | उस समय राज्य के कई योध्धा इकठ्ठे हुए थे तथा वहां पर विराजने के बाद बादशाह कहने लगे कि क्या अंधे भी निशाने लगाने लगे है ?
लोगों की भीड़ को देखकर चन्द्र कवि ने कहा : चार भौश चौविश गज अंगुल अष्ट प्रमाण | ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान ||
इतना सुनते ही प्रथ्विराज चौहान के तरकश से तीर ऐसे निकला जैसे महाभारत के अर्जुन का तीर उस मछली की आँख भेदने की लिए निकला तथा मुहम्मद गोरी को मार डाला | प्रथ्विराज के हाटों मुहम्मद गोरी को मरवाकर अंत में दोनों ही काबुल कंधार में  ही मर गये | यह खबर जब अनंगपाल जी को मालूम चली तो वे दुखी रहने लगे और अंत में राजा अनंगपाल जी का देहांत हो गया | मृत्यु के बाद अनंगपाल जी की पांच पीढ़ी नरेना में रहीं | श्री अनंगपाल जी से पांच पीढ़ी पैदा हुए रणसी जी की संताने वहीँ पर रह रही थी जबकि बाकि के पुत्र ग्वालियर, हरियाणा एवं तवरावती आदि जाकर रहने लगे थे | उनके घर आज भी वहां रह रहे है जबकि रणसी जी के आठ पुत्र हुए जिनके नाम अजमल जी, राजसिंह जी, सलारसिंह, गजेसिंह, मोरजी, केशपालजी, नेणजी तथा धनरूपजी थे |
इशार रणसी जी ने पहले से ही आतंक मचा रखा था और जो भी मुसलमी व्यापारी देखता उसे लूट लेते थे | मगर समय ने चक्र ऐसा खाया कि बादशाहों का जमाना गया और धार्मिक झगडे अपनी सीमा पर कर चुके थे | मुल्ला व काजी बादशाह को हमेशा रणसी जी के बारे में बहकते थे और कहते थे कि रणसी जी अपने इस्लाम धर्म में रोड़ा अटकते हैं लेकिन कुछ ही दिनों बाद रणसी जी ने मुसलमानी वेशभूषा में एक कुटिया में निवास करने वाले साधू के साथ दुर्व्यवहार किया और साधू ने कोढ़ निकलने का श्राप दे दिया | इधर बादशाह ने नरेना पर कई बार अकर्मण किये लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी | जैसे जैसे समय गुजरता गया साधू द्वारा दिया हुआ श्राप सत्य होने लगा रणसी जी के शरीर में जगह जगह गांठे होने लगी और धीरे धीरे पूरा शरीर कोढ़ रोग से भर गया | वे दुखी होकर अपने घर से साधू कर वेश धारण कर निकल गये | जब पीड़ा से करहाते हुए जगह जगह ठहरते हुए अपने इष्ट के दर्शन करने को निकल गये | उन्होंने जगह जगह अपने इष्ट देव द्वारिका पूरी की यात्रा की तथा एक दिन एक पनघट के पास खड़े अपनी पीड़ा से चिल्लाने से उनका गला भी रुंध गया | इतने में पनघट पर एक स्त्री पानी भरने आई उसके घड़े से एक बूँद जल रणसी जी के शरीर पर आकर गिरी और पीड़ा में कमी का अनुभव मिला लैब रणसी जी ने उस नारी से पूंछा तुम कौन हो ? किस घर की नारी हो ? तुम्हारा घर कहाँ है ? इतना पूंछने पर नारी जाति स्वभाविक लज्जा एवं अपरिचित यात्री से वार्तालाप करने में अपने परिचय पता देना लोक मरियादा की दृष्टि से सामयिक भाव अनुचित समझ कर कोई उत्तर नहीं दिया | जो एक कुलीन नारी के लिए स्वभाविक गुण है | जब वह नारी पनघट से पानी लेकर चली तो रणसी जी भी उसके पीछे पीछे चल पड़े और घर पहुंचकर खिवण जी नमक एक संत परवर्ती के एक सज्जन से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए तथा ज्ञात हुआ की वह खिवण जी की स्त्री थी |
खिवण जी ने उनका आदर सत्कार किया रणसी जी ने भी अपनी दुःख भरी कहानी सुनाई जिसको सुनकर खिवण जी की आँखों में आँसू आगये | रणसी जी ने अपने दुःख की निव्रती का उपाय पूंछा तब खिवण जी उन्हें ऋषि के आश्रम ले गये और इन्हें बहार खड़ा करके खुद स्वामी जी के पास पहुंचे और नमस्कार किया तब समय ऋषि प्रसन्न हुए और ऋषि ने कपिल गौं का दूध दुहाय और खापर में लेकर कुछ स्वं पिया तथा बाकि खिवण को देखकर कहा की इसे पीले | तब खिवण ने कहा महाराज मेरा एक साथी बहार खड़ा है आपकी आज्ञा हो तो मैं उसे अन्दर ले आऊ | यह सुनकर ऋषि ने कहा भक्त मेरे पास आने के लिए किसी की कोई रोकटोक नहीं है परन्तु गुरु द्रोही को नहीं लाना और तुम दोनों इस दूध को पीलो | आज्ञा पाकर खिवण जी रणसी जी को बुलाकर अन्दर ले गये और मिलकर दोनों ने दूध पिया | बस उस दूध को पीते ही रणसी का कोढ़ दूर हो गया | शरीर का रंग रूप बदलते ही समय ऋषि ने रणसी को पहचाना और क्रोध में गरज कर बोले खिवण तुमने बड़ा अपराध किया है इसका फल दोनों को भोगना होगा | करोति के आरा से कटकर एक साथ मरे जाओगे | इस प्रकार का श्राप सुनकर खिवण जी भय से कांपते हुए बोले हे ! गुरुदेव मैंने भरी अपराध किया मुझे माफ़ करो मैं आपका शरणागत भक्त हूँ
संसार में मेरा रक्षक नहीं है आप क्रपा करो खिवण की पीड़ा सुनकर समय ऋषि ने कहा भगतों मैं श्राप को वापिस नहीं ले सकता हूँ | लेकिन प्रभाव धरा बदल दी है |

श्री गोगापीर जी

राष्ट्रीय एकता व सांप्रदायिक सद़भावना का प्रतीक धार्मिक पर्व गोगामेडी (राजस्थान) में गोगाजी की समाधि स्थल पर मेला लाखों भक्तों के आकर्षण का केंद्र है। यह मेला प्रतिवर्ष भाद्रप्रद में शुक्लपक्ष पर लगता है और पूरे पखवाड़े तक जोर-शोर से चलता हुआ लगभग एक माह तक चलता रहता है। इस मेले में देश के कोने-कोने से श्रद्घालु आकर गोगाजी की समाधि पर धोक लगाते हैं व प्रसाद चढ़ाते हैं।
मध्यकालीन महापुरूष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की सहानुभूति व श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्व हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वशं के राजपूत शासक जैबर की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरू गोरखनाथ के वरदान से भादो शुदी नवमी को हुआ था। इनके जन्म की भी विचित्र कहानी है। एक किवदंती के अनुसार गोगाजी का माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नही मिला। गुरू गोरखनाथ गोगामेडी के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और कहा कि वे अपनी तपस्या पूरी होने पर उन्हें ददरेवा आकर प्रसाद देंगे जिसे ग्रहण करने पर उन्हे संतान की प्राप्ति होगी। तपस्या पूरी होने पर गुरू गोरखनाथ बाछल देवी के महल पहुंचे। उन दिनों बाछल देवी की सगी बहन काछल देवी अपनी बहन के पास आई हुई थी। गुरू गोरखनाथ से काछल देवी ने प्रसाद ग्रहण कर लिया और दो दाने अनभिज्ञता से प्रसाद के रूप में खा गई। काछल देवी गर्भवती हो गई। बाछल देवी को जब यह पता चला तो वह पुनः गोरखनाथ की शरण मे गई। गुरू बोले, देवी ! मेरा आशीर्वाद खाली नहीं जायेगा तुम्हे पुत्ररत्न की प्राप्ति अवश्य होगी। गुरू गोरखनाथ ने चमत्कार से एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत भादो माह की नवमी को गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा।

श्री गोगापीर जी की समाधि
चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। मुख्य द्वार पर बिस्मिला अंकित है। मंदिर के मध्य में गोगाजी का मजार है (कब्र) है। साम्प्रदायिक सद़भावना के प्रतीक गोगाजी के मंदिर का निर्माण बादशाह फिरोजशाह तुगलक ने कराया था। संवत 362 में फिरोजशाह तुगलक हिसार होते हुए सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हा-हाकार मच गया। तुगलक कि सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान हस्ती आई हुई है। वो प्रकट होना चाहती है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया और पक्की मजार बन गई। तत्पश्चात मंदिर का जीर्णोद्वार बीकानेर के महाराज काल में 1887 व 1943 में करवाया गया।

गोगाजी का यह मंदिर आज हिंदू, मुस्लिम, सिख व ईसाईयों में समान रूप से श्रद्वा का केंद्र है। सभी धर्मो के भक्तगण यहां गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादव मास में उमड़ पडते हैं। राजस्थान का यह गोगामेडी नाम का छोटा सा गांव भादव मास में एक नगर का रूप ले लेता है और लोगों का अथाह समुद्र बन जाता है। गोगा भक्त पीले वस्त्र धारण करके अनेक प्रदेशों से यहां आते हैं। सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश व बिहार के भक्तों की होती है। नर-नारियां व बच्चे पीले वस्त्र धारण करके विभिन्न साधनों से गोगामेडी पहुंचते हैं। स्थानीय भाषा में इन्हें पूरबिये कहते हैं। भक्तजन अपने-अपने निशान जिन्हे गोगाछड़ी भी कहते हैं लेकर मनौति मांगने नाचते-गाते ढप व डमरू बजाते व कुछ एक सांप लिए भी आते हैं। गोगा को सापों के देवता के रूप में भी माना जाता है। हर धर्म व वर्ग के लोग गोगाजी की छाया चढ़ाकर नृत्य की मुद्रा में सांकल खाते व पदयात्रा करते तथा गोरखनाथ टीले से लेटते हुए गोगाजी के समाधि स्थल तक पहुंचते हैं। नारियल, बताशे का प्रसाद चढ़ाकर मनौति मांगते र्हैं।
मेले के दिनों में गोगामेडी में एक अपूर्व आध्यात्मिक वातावरण बन जाता है और प्राशासनिक व्यवस्था कायम हो जाती है। विभिन्न संगठनो के स्वयं सेवक भी भक्तों की सुविधा के लिए जुट जाते हैं। अधिकांश भक्त रेल मार्ग से पहुंचते हैं। हालांकि रेल विभाग भक्तों की सुविधा के लिए अनेक विशेष रेलगाडियां चलाता है तो भी रेलों में भीड़ अभूतपूर्व होती है। गोगामेड में इन्ही दिनों पशुओं का मेला भी लगता है, जहां लाखों पशुओं की खरीद-फरोख्त होती है। गोगामेडी साम्प्रदायिक सद़भाव व राष्ट्र की अनेकता में एकता की अनूठी मिशाल है।

गुरु गोरखनाथ की भक्ति :- LiveHindustan.com

 
 
 हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों में प्रमुख स्थान रखने वाले नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति आदिनाथ भगवान शिव द्वारा मानी जाती है। शिव से जो तत्वज्ञान मत्स्येन्द्र नाथ ने प्राप्त किया उसे ही शिष्य बन कर शिवावतार  महायोगी गुरु गोरक्षनाथ ने ग्रहण किया। महाकालयोग शास्त्र में स्वयं शिव ने कहा है-‘अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत! योग-मार्ग प्रचाराय मयारूपमिदं धृतम्’।
 भारतीय धर्म साधक-सम्प्रदायों की पतनोन्मुख और विकृत स्थिति के दौर में वामाचारी तांत्रिक साधना चरम पर थी। तब पंचमकारों का खुल कर प्रयोग होता था। भोगवाद शीर्ष पर था। ऐसे समय में महायोगी गोरक्षनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। उनका मानना था कि सिद्धियों का प्रयोग सर्वजन हिताय के लिए ही होना चाहिए। उनके आचार सम्बन्धी उपदेश योग के सैद्धान्तिक अष्टांग योग की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक हैं।
नाथ पंथी योगी महायोगी गुरु गोरक्षनाथ को चारों युगों में विद्यमान, अयोनिज, अमरकाय और सिद्ध महापुरुष मानते हैं। उन्होंने भारत के अलावा तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफगानिस्तान, नेपाल,  सिंघल को अपने योग महाज्ञान से आलोकित किया। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार गोरक्षनाथ सतयुग में पेशावर, त्रेता में गोरखपुर, द्वापर में हरमुज (द्वारिका) और कलियुग में गोरखमढ़ी (महाराष्ट्र) में आविभरूत हुए। जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह द्वारा विरचित ‘श्रीनाथ तीर्थावली’ के अनुसार प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में कंकण बंधन गुरु गोरक्षनाथ की कृपा से ही हुआ था।
यद्यपि वैदिक साधना के साथ समानान्तर रूप से प्रवाहित तांत्रिक साधना का  समान रूप से शैव, शाक्त, जैन, वैष्णव आदि पर प्रभाव पड़ा, तथापि उनसे सदाचार के नियमों का पालन यथाविधि नहीं हो सकता। चतुर्दिक फैले हुए अनाचार को देख कर गोरखनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार किया। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास को लिखना पड़ा- गोरख भगायो जोगु, भगति भगायो लोगु। भक्ति को भगाने वाले संबोधन से तात्पर्य कदाचित साकारोपासना से है। गुरु गोरखनाथ की भक्ति मुख्य  रूप से केवल गुरु तक सीमित है। उन्होंने भक्ति का कहीं विरोध नहीं किया। तुलसी दास के कथन से एक बात स्पष्ट है कि यदि गोरखनाथ जी न होते तो संत साहित्य न होता।
गुरु गोरक्षनाथ और नाथ पंथ की योग साधना एवं क्रिया कलापों की प्रतिक्रिया ही सभी निगरुण एवं सगुणमार्गी सन्तों के साहित्य में स्पष्ट होती है। उस प्रतिक्रिया के प्रवाह में प्राचीन जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म, अस्पृश्यता, ऊँचनीच का भेदभाव मिट गया। योग मार्ग के गुह्य सिद्धान्तों को साकार करके जन भाषा में व्यक्त एवं प्रचलित करना गोरखनाथ जी का समाज के प्रति सबसे बड़ा योगदान था।
उनके विराट व्यक्तित्व के कारण ही अनेक भारतीय तथा अभारतीय सम्प्रदाय नाथ पंथ में अन्तर्मुक्त हो गए। उनके योग द्वारा सिद्धि की प्राप्ति संयमित जीवन और प्राणायाम से परिपक्व देह की प्राप्ति, अन्त में नादावस्था की स्थिति में दिव्य अनुभूति  और सबसे समत्व का भाव आदि विशिष्टताओं ने तत्कालीन समाज एवं साधना पद्धतियों को अपने में लपेट लिया। यही कारण था कि जायसी ने गुरु गोरक्षनाथ की महिमा में कहा- ‘जोगी सिद्ध होई तब जब गोरख सौ भेंट’।
कबीर ने भी गोरक्षनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया-
‘कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि।
साषी गोरखनाथ ज्यूं,अमर भये कलि माहि’।।
गोरखनाथ जी एवं नाथ सन्तों का ज्ञान किसी शास्त्र-पुराण नहीं अपितु सहज लोकानुभव और लोक व्यवहार का था, जिसे वह जी और भोग रहे थे क्योंकि ब्रह्मचर्य, आसन, प्राणायाम, मुद्राबन्ध, सिद्धावस्था के विविध अनुभव ऐसा कुछ भी नहीं जिसके व्यवहार को छोड़ कर शास्त्र का आधार लेना पड़े। उनका लोकानुभव यज्ञ और पण्डित, ऊंच-नीच आदि की विभाजक रेखा नहीं खींचता। वह मनुष्य मात्र के लिए है।
गोरखनाथ जी द्वारा विर्निदिष्ट तत्वविचार तथा योग साधना को आज भी उसी रूप में समझा जा सकता है। नाथ सम्प्रदाय को गुरु गोरक्षनाथ ने भारतीय मनोवृत्त के अनुकूल बनाया। उसमें जहाँ एक ओर धर्म को विकृत करने वाली समस्त परम्परागत रूढ़ियों का कठोरता से विरोध किया, वहीं सामान्य जन को अधिकाधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रख कर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए योग मार्ग का प्रचार-प्रसार किया।
उनकी साधना पद्धति का संयम एवं सदाचार से सम्बन्धित व्यावहारिक स्वरूप जन-जन मे ंइतना लोकप्रिय हो गया था कि विभिन्न धर्मावलम्बियों, मतावलम्बियों ने अपने धर्म एवं मत को लोकप्रिय बनाने के लिए नाथ पंथ की साधना का मनचाहा प्रयोग किया। नाथ पंथ की योग साधना आज भी प्रासंगिक है। विभिन्न प्रकार की सामाजिक-शारीरिक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सक्षम है।
गूढ़ योग साधना आम आदमी तक लाए
गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त अवेद्यनाथ 
Source: LiveHindustan.com

वाणी

गोरखवाणी
पवन ही जोग, पवन ही भोग,
पवन इ हरै, छतीसौ रोग,
या पवन कोई जाणे भव्, सो आपे करता,
आपे दैव! ग्यान सरीखा गिरु ना मिलिया,
चित्त सरीखा चेला,
मन सरीखा मेलु ना मिलिया,
ताथै, गोरख फिरै, अकेला !

कबीर जी और गुरु गोरखनाथ

श्री मंछदरनाथ जी के शिष्य गुरु गोरखनाथ जी को प्रायः धर्म में आस्था रखने वाले सभी लोग जानते हैं . गुरु गोरखनाथ जी कबीर साहेब के समय में ही हुये और इनका सिद्धी ज्ञान विलक्षण था | उन दिनों काशी में प्रत्येक हफ़्ते विद्धानों की सभा होती थी और सभा के नियमानुर चोटी के विद्धान आपस में शास्त्रार्थ करते थे और बाद में जीतने वाला ग्यानी हारने वाले का तिलक चाट लेता था और जीतने वाला विजयी घोषित कर दिया जाता था | उन दिनों कबीर जी के नाममात्र के गुरु (ये रहस्य है कि रामानन्द कबीर जी  के गुरु कहलाते थे पर वास्तव में ये सत्य नहीं था ) रामानन्द जी का विद्धता में बेहद बोलबाला था और गुरु गोरखनाथ ने उनसे शास्त्रार्थ किया | शास्त्रज्ञान और वैष्णव पद्धति का आचरण करने वाले रामानन्द जी गुरु गोरखनाथ जी की सिद्धियों के आगे नहीं टिक सके और गुरु गोरखनाथ जी ने उनका तिलक चाट लिया इससे रामानन्द जी बेहद आहत हुये क्योंकि उनकी गिनती चोटी के विद्धानों में होती थी | इस घटना से उनका बेहद अपमान हुआ था | कबीर जी उन दिनों रामानन्द के नये - नये शिष्य बने थे और उनकी अपारशक्ति का किसी को बोध नहीं था | कबीर साहेब ने रामानन्द जी से आग्रह किया कि वे अपने अखाङे की तरफ़ से गुर गोरखनाथ से ग्यानयुद्ध करना चाहते हैं इस पर रामानन्द जी ने उनका बेहद उपहास किया | उनकी नजर में कबीर जी एक कपङे बुनने वाले जुलाहा मात्र थे वो ज्ञान की बातें क्या जाने .सभी ने उनकी बेहद खिल्ली उङाई लेकिन फ़िर भी कबीर जी ने रामानन्द जी से बार बार आग्रह किया कि वे एक बार उन्हे गुरु गोरखनाथ से ग्यानयुद्ध कर लेने दे | हारकर  रामानन्द जी ने उन्हें इजाजत दे दी | कबीर जी  ने अपने मस्तक से लेकर नाभि तक एक लम्बा तिलक लगाया और गुरु गोरखनाथ से युद्ध करने पहुँचे | गुरु गोरखनाथ उनका तिलक देखकर चिङ गया | कबीर जी और गुरु गोरखनाथ का युद्ध शुरु हुआ और गुरु गोरखनाथ ने कबीर जी की खिल्ली सी उङाते हुये अपना त्रिशूल निकाला और अपनी सिद्धी के बल पर त्रिशूल की बीच की नोंक पर जा बैठा और बोले कि में तो यहाँ बैठकर युद्ध करूँगा...क्या तुम मुझसे लङोगे | कबीर साहेब मुस्कराये और अपनी जेब से कपङे बुनने वाली कच्चे सूत की गुल्ली निकालकर उसका छोक पकङकर गुल्ली आसमान की तरफ़ उछाल दी | गुल्ली आसमान में चली गयी कबीर साहेब कच्चे सूत पर चङकर आसमान में पहुँच गये और बोले गोरख मैं तो यहाँ से युद्ध करूँगा .गुरु गोरखनाथ बेहद तिलमिला गए फ़िर भी गुरु गोरखनाथ ने अपने अहम में कई टेङेमेङे सवाल किये और कबीर जी का जवाव सुनकर उसके छक्के छूट गये और गुरु गोरखनाथ को विद्धानों की उस सभा में अपनी हार माननी पङी | वे कबीर जी के पैरों में गिर पडे और उनके शिष्य भी बने