
रामदेवरा पूर्वज इतिहास
आज से करीब 1000 वर्ष पहले दिल्ली पर तोमर वंशी राजपूत रजा अनंगपाल जी राज्य करते थे यह वंश चन्द्र वंशी था | इसी तोमर वंश में बाबा रामदेव जी से 36 पीढ़ी पहले तोमर नामक एक राजा हुआ करता था | इसी राजा ने अपने नाम से तोमर वंश चलाया और उसी दिन से राजपूत जाति को तुंवर जाति के नाम से जाना जाने लगा इसी वंश में पांडव हुए | यह वंश हमेशा भगवान श्री क्रष्ण की ही पूजा एवं महिमा गाते आ रहे है राजा अनंगपाल भी एक प्रकार से पराक्रमी एवं योग्य राजा थे तथा इनके राज्य में कोई भी दुखी नहीं था | प्रजा हमेशा सुखी जीवन बिताती थी | लक्ष्मी रूप धन की भी कोई कमी नहीं थी |
इस लिए राजा स्वयम प्रजा को सदा खुश देखने में अपनी प्रसन्नता समझते थे | धीरे धीरे समय गुजरता गया राजा अनंगपाल प्रजा के लिए लोकप्रिय राजा बन गये लेकिन उनके कुल की शोभा बढ़ने के लिए पुत्र नहीं था | इसलिए वे थोडा उदासी महसूस किया करते थे |
राजा अनंगपाल के केवल दो कन्यायें ही थी | एक नाम राजकवंर व दूसरी का नाम कमला था | राजकवंर की शादी कनौज के राजा जयचंद्र के साथ की थी तथा दूसरी की शादी अजमेर के चौहान वंशी राजा रामेश्वर के साथ की थी | इस प्रकार से घर में कोई पुत्र नहीं होने के कारण छोटी लड़की कमला के पुत्र प्रथ्विराज चौहान को पुत्र के सामान मानकर अपने पास रखने लगे | समय बीतता गया प्रथ्विराज करीब दस वर्ष का हुआ की एक रात अनंगपाल को आकाशवाणी हुई कि तुम्हारी रानी के गर्भ से तीन पुत्र होंगे | इस प्रकार भगवान के वचन सत्य हुए और उनके तीन पुत्र अमजी, सलोबन जी तम्रपलजी | तीनों पुत्रों की ख़ुशी के मरे अनंगपाल जी सदा खुश रहने लगे | इधर प्रथ्विराज युवा अवस्था में प्रवेश कर गया था और राजनीति का पूर्ण जानकारक थे | अनंगपाल जी के तीनों पुत्रों को बड़े होते हुए देखकर वह जलने लगा क्योकि यह राज्य उनके हाथों से जा रहा था | वह हमेशा तीनों को हटाना चाहता था | दूसरी और अनंगपाल जी की सबसे बड़ी पुत्री राजकवंर का पुत्र जयचंद्र राठौर भी प्रथ्विराज के ऐश व आराम से जलने लगा | एक दिन अनंगपाल जी ने प्रथ्विराज चौहान को राज्य की देखरेख करने को कहकर अपनी 13 रानियों तथा तीनों पुत्रों सहित अपने सेवकों के साथ तीर्थ पर निकल गये | इधर चौहानों एवं राठौरों के बीच आपसी तनाव बढ़ने लगा | इस फूट को नजर रखते हुए प्रथ्विराज चौहान पर मुहम्मद गोरी ने दिल्ली पर अकर्मण कर दिया मगर प्रथ्विराज चौहान भी बड़े वीर थे क्योकि उनके पास सैनिकों एवं धन की कमी नहीं थी और इस यूध में गोरी को मुह की खानी पड़ी | इस प्रकार से मुहम्मद गोरी ने प्रथ्विराज चौहान पर 17 बार आक्रमण किये लेकिन एक बार भी विजय हाथ नहीं लगी |
इस प्रकार प्रथ्विराज चौहान पर हो रहे बार बार आक्रमणों से चिन्तित होकर महाराज ने तीर्थ यात्रा के 12 वे वर्ष में ही तीर्थ यात्रा से निव्रती लेकर पुनः दिल्ली आना चाह तथा इसकी सूचना प्रथ्विराज चौहान को मिली प्रथिवराज चौहान पहले से ही अनंगपाल की तीनों संतानों को लेकर दुखी था क्योकि उनके सुख चैन एवं राज तिलक के प्रति मन और अधिक लालच में घुस रहा था तथा उसने पहले से ही नाना जी के खे हुए वाक्यों किसी को भी राज्य में मत आने देना वाला अधर मानकर अपने उद्देश्य पूरा करना चाहता था | उधर महाराज अनंगपाल जी अपने राज्य की सीमा तक पुत्रों पत्नी एवं सेवकों सहित आगये थे तथा एक सेवक को प्र्थिविराज द्वारा उनके स्वागत करके राज्य में प्रवेश करने की तयारी के लिए व्याकुल हो रहे थे उधर सेवक स्वागत की तैयारिया सम्बंधित सुचना लेकर वहां पहुंचा | इस प्रकार कि सुचना सुनकर प्रथ्विराज चौहान हंस पड़ा | नाना जी लगते है पागल हो गये है उन्होंने ही तो कहा था कि बेटे यह राज्य तेरा है यहाँ किसी को भी मत आने देना |
मैं अप इनको कैसे आने दूं | इस प्रकार कि सुचना लेकर सेवक उदास होता हुआ महाराजा अनंगपाल जी के पास पहुंचा तथा सारी बात बताई | यह सब सुनकर एक बार तो अनंगपाल दुखी हुए लेकिन महारानी ने जब यह कहा कि हे पति देव अपने दुहिते के मन में थोडा पाप घुस गया है | वह इस राज्य को छोड़ना नहीं चाहता इसलिए उन्हें इस दिल्ली कि गद्दी पर उतराधिकारी नियुक्त कर हम लोग अपनी प्रजा सहित यहाँ से निकल जायेंगे और एक अन्य राज्य स्वतंत्र राज्य कि स्थापना करेंगे | रानी के कहने पर उनहोंने सेवक को भेजकर प्र्थिविराज चौहान को बुलाया और कहा कि एक बार हमे अतिथि मानकर स्वागत सहित अपने दरबार में ले आओ वहा पर राजतिलक देकर हम लोग यहाँ से निकल जायंगे | इस प्रकार से प्रथ्विराज चौहान ने लिखित में लिखवा लेने के बाद स्वागत के साथ ही उनको अतिथि गृह में लगये | अगले दिन प्रात: होते ही रजा अनंगपाल जी राजा महाराजा को पांच दिन आमंत्रित किया | तथा प्रथ्विराज चौहान को राजतिलक देकर अपनी पत्नी तथा पुत्रों सहित निकर ही रहे थे कि दिल्ली की प्रजा ने कहा की हम लोग भी आपके साथ चलेंगे | महाराज के लाख कोशिशे की लेकिन उन्होंने भी हट नहीं छोड़ी और वहां समस्त जनता ने प्रस्थान किया | इस प्रकार से दिल्ली छोड़ने के बाद वे अजमेर के पास स्थित नरेना गये तथा अपने अलग राज्य की स्थापना की और वहां वह बड़ी ख़ुशी के साथ राजा अनंगपाल एवं उनकी प्रजा रहने लगी | उधर मुहम्मद गोरी ने जयचंद्र के साथ मिलकर 18 वी बार प्रथ्विराज चौहान पर आक्रमण कर दिया | यह युद्ध तीन माह तक चला तथा प्रथ्विराज चौहान को हराकर बंदी बना दिया और वहां से कबूल कंधार ले गया | वहां लेजाकर प्रथ्विराज चौहान की आँखें फोड़ कर काल कोठरी में दाल दिया | जहाँ पर उनसे कोई भी नहीं मिल सके लेकिन प्रथ्विराज चौहान के राज कवि एवं बचपन के साथी चन्द्र कवि वरदाई ने सुना की प्रथ्विराज चौहान को मुहम्मद गोरी काबुल कंधार ले गया है तब चन्द्र कवि वहां पहुंचे और अपने राजा को देखकर बहुत दुखी हुए | चन्द्र कवि ने बदला लेने की सोची और बादशाह को कहा की प्रथ्विराज अन्धा होते हुए भी निशाना लगा सकने की बात कही बादशाह बात को अनहोनी समझ कर हंस पड़े | इधर इस हंसी को देखकर कवि आग बबूला हो रहे थे | एक बार पीर कहा अगर आपको विशवास नहीं हो तो परीक्षा लेकर देखले इस बात पर बादशाह सहमत हो गया और परीक्षा लेने के लिए सात तवे लोहे के बांध दिए और बादशाह चार कोस ऊपर बैठ गया | उस समय राज्य के कई योध्धा इकठ्ठे हुए थे तथा वहां पर विराजने के बाद बादशाह कहने लगे कि क्या अंधे भी निशाने लगाने लगे है ?
लोगों की भीड़ को देखकर चन्द्र कवि ने कहा : चार भौश चौविश गज अंगुल अष्ट प्रमाण | ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान ||
इतना सुनते ही प्रथ्विराज चौहान के तरकश से तीर ऐसे निकला जैसे महाभारत के अर्जुन का तीर उस मछली की आँख भेदने की लिए निकला तथा मुहम्मद गोरी को मार डाला | प्रथ्विराज के हाटों मुहम्मद गोरी को मरवाकर अंत में दोनों ही काबुल कंधार में ही मर गये | यह खबर जब अनंगपाल जी को मालूम चली तो वे दुखी रहने लगे और अंत में राजा अनंगपाल जी का देहांत हो गया | मृत्यु के बाद अनंगपाल जी की पांच पीढ़ी नरेना में रहीं | श्री अनंगपाल जी से पांच पीढ़ी पैदा हुए रणसी जी की संताने वहीँ पर रह रही थी जबकि बाकि के पुत्र ग्वालियर, हरियाणा एवं तवरावती आदि जाकर रहने लगे थे | उनके घर आज भी वहां रह रहे है जबकि रणसी जी के आठ पुत्र हुए जिनके नाम अजमल जी, राजसिंह जी, सलारसिंह, गजेसिंह, मोरजी, केशपालजी, नेणजी तथा धनरूपजी थे |
इशार रणसी जी ने पहले से ही आतंक मचा रखा था और जो भी मुसलमी व्यापारी देखता उसे लूट लेते थे | मगर समय ने चक्र ऐसा खाया कि बादशाहों का जमाना गया और धार्मिक झगडे अपनी सीमा पर कर चुके थे | मुल्ला व काजी बादशाह को हमेशा रणसी जी के बारे में बहकते थे और कहते थे कि रणसी जी अपने इस्लाम धर्म में रोड़ा अटकते हैं लेकिन कुछ ही दिनों बाद रणसी जी ने मुसलमानी वेशभूषा में एक कुटिया में निवास करने वाले साधू के साथ दुर्व्यवहार किया और साधू ने कोढ़ निकलने का श्राप दे दिया | इधर बादशाह ने नरेना पर कई बार अकर्मण किये लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी | जैसे जैसे समय गुजरता गया साधू द्वारा दिया हुआ श्राप सत्य होने लगा रणसी जी के शरीर में जगह जगह गांठे होने लगी और धीरे धीरे पूरा शरीर कोढ़ रोग से भर गया | वे दुखी होकर अपने घर से साधू कर वेश धारण कर निकल गये | जब पीड़ा से करहाते हुए जगह जगह ठहरते हुए अपने इष्ट के दर्शन करने को निकल गये | उन्होंने जगह जगह अपने इष्ट देव द्वारिका पूरी की यात्रा की तथा एक दिन एक पनघट के पास खड़े अपनी पीड़ा से चिल्लाने से उनका गला भी रुंध गया | इतने में पनघट पर एक स्त्री पानी भरने आई उसके घड़े से एक बूँद जल रणसी जी के शरीर पर आकर गिरी और पीड़ा में कमी का अनुभव मिला लैब रणसी जी ने उस नारी से पूंछा तुम कौन हो ? किस घर की नारी हो ? तुम्हारा घर कहाँ है ? इतना पूंछने पर नारी जाति स्वभाविक लज्जा एवं अपरिचित यात्री से वार्तालाप करने में अपने परिचय पता देना लोक मरियादा की दृष्टि से सामयिक भाव अनुचित समझ कर कोई उत्तर नहीं दिया | जो एक कुलीन नारी के लिए स्वभाविक गुण है | जब वह नारी पनघट से पानी लेकर चली तो रणसी जी भी उसके पीछे पीछे चल पड़े और घर पहुंचकर खिवण जी नमक एक संत परवर्ती के एक सज्जन से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए तथा ज्ञात हुआ की वह खिवण जी की स्त्री थी |
खिवण जी ने उनका आदर सत्कार किया रणसी जी ने भी अपनी दुःख भरी कहानी सुनाई जिसको सुनकर खिवण जी की आँखों में आँसू आगये | रणसी जी ने अपने दुःख की निव्रती का उपाय पूंछा तब खिवण जी उन्हें ऋषि के आश्रम ले गये और इन्हें बहार खड़ा करके खुद स्वामी जी के पास पहुंचे और नमस्कार किया तब समय ऋषि प्रसन्न हुए और ऋषि ने कपिल गौं का दूध दुहाय और खापर में लेकर कुछ स्वं पिया तथा बाकि खिवण को देखकर कहा की इसे पीले | तब खिवण ने कहा महाराज मेरा एक साथी बहार खड़ा है आपकी आज्ञा हो तो मैं उसे अन्दर ले आऊ | यह सुनकर ऋषि ने कहा भक्त मेरे पास आने के लिए किसी की कोई रोकटोक नहीं है परन्तु गुरु द्रोही को नहीं लाना और तुम दोनों इस दूध को पीलो | आज्ञा पाकर खिवण जी रणसी जी को बुलाकर अन्दर ले गये और मिलकर दोनों ने दूध पिया | बस उस दूध को पीते ही रणसी का कोढ़ दूर हो गया | शरीर का रंग रूप बदलते ही समय ऋषि ने रणसी को पहचाना और क्रोध में गरज कर बोले खिवण तुमने बड़ा अपराध किया है इसका फल दोनों को भोगना होगा | करोति के आरा से कटकर एक साथ मरे जाओगे | इस प्रकार का श्राप सुनकर खिवण जी भय से कांपते हुए बोले हे ! गुरुदेव मैंने भरी अपराध किया मुझे माफ़ करो मैं आपका शरणागत भक्त हूँ
संसार में मेरा रक्षक नहीं है आप क्रपा करो खिवण की पीड़ा सुनकर समय ऋषि ने कहा भगतों मैं श्राप को वापिस नहीं ले सकता हूँ | लेकिन प्रभाव धरा बदल दी है |
आज से करीब 1000 वर्ष पहले दिल्ली पर तोमर वंशी राजपूत रजा अनंगपाल जी राज्य करते थे यह वंश चन्द्र वंशी था | इसी तोमर वंश में बाबा रामदेव जी से 36 पीढ़ी पहले तोमर नामक एक राजा हुआ करता था | इसी राजा ने अपने नाम से तोमर वंश चलाया और उसी दिन से राजपूत जाति को तुंवर जाति के नाम से जाना जाने लगा इसी वंश में पांडव हुए | यह वंश हमेशा भगवान श्री क्रष्ण की ही पूजा एवं महिमा गाते आ रहे है राजा अनंगपाल भी एक प्रकार से पराक्रमी एवं योग्य राजा थे तथा इनके राज्य में कोई भी दुखी नहीं था | प्रजा हमेशा सुखी जीवन बिताती थी | लक्ष्मी रूप धन की भी कोई कमी नहीं थी |इस लिए राजा स्वयम प्रजा को सदा खुश देखने में अपनी प्रसन्नता समझते थे | धीरे धीरे समय गुजरता गया राजा अनंगपाल प्रजा के लिए लोकप्रिय राजा बन गये लेकिन उनके कुल की शोभा बढ़ने के लिए पुत्र नहीं था | इसलिए वे थोडा उदासी महसूस किया करते थे |
राजा अनंगपाल के केवल दो कन्यायें ही थी | एक नाम राजकवंर व दूसरी का नाम कमला था | राजकवंर की शादी कनौज के राजा जयचंद्र के साथ की थी तथा दूसरी की शादी अजमेर के चौहान वंशी राजा रामेश्वर के साथ की थी | इस प्रकार से घर में कोई पुत्र नहीं होने के कारण छोटी लड़की कमला के पुत्र प्रथ्विराज चौहान को पुत्र के सामान मानकर अपने पास रखने लगे | समय बीतता गया प्रथ्विराज करीब दस वर्ष का हुआ की एक रात अनंगपाल को आकाशवाणी हुई कि तुम्हारी रानी के गर्भ से तीन पुत्र होंगे | इस प्रकार भगवान के वचन सत्य हुए और उनके तीन पुत्र अमजी, सलोबन जी तम्रपलजी | तीनों पुत्रों की ख़ुशी के मरे अनंगपाल जी सदा खुश रहने लगे | इधर प्रथ्विराज युवा अवस्था में प्रवेश कर गया था और राजनीति का पूर्ण जानकारक थे | अनंगपाल जी के तीनों पुत्रों को बड़े होते हुए देखकर वह जलने लगा क्योकि यह राज्य उनके हाथों से जा रहा था | वह हमेशा तीनों को हटाना चाहता था | दूसरी और अनंगपाल जी की सबसे बड़ी पुत्री राजकवंर का पुत्र जयचंद्र राठौर भी प्रथ्विराज के ऐश व आराम से जलने लगा | एक दिन अनंगपाल जी ने प्रथ्विराज चौहान को राज्य की देखरेख करने को कहकर अपनी 13 रानियों तथा तीनों पुत्रों सहित अपने सेवकों के साथ तीर्थ पर निकल गये | इधर चौहानों एवं राठौरों के बीच आपसी तनाव बढ़ने लगा | इस फूट को नजर रखते हुए प्रथ्विराज चौहान पर मुहम्मद गोरी ने दिल्ली पर अकर्मण कर दिया मगर प्रथ्विराज चौहान भी बड़े वीर थे क्योकि उनके पास सैनिकों एवं धन की कमी नहीं थी और इस यूध में गोरी को मुह की खानी पड़ी | इस प्रकार से मुहम्मद गोरी ने प्रथ्विराज चौहान पर 17 बार आक्रमण किये लेकिन एक बार भी विजय हाथ नहीं लगी |
इस प्रकार प्रथ्विराज चौहान पर हो रहे बार बार आक्रमणों से चिन्तित होकर महाराज ने तीर्थ यात्रा के 12 वे वर्ष में ही तीर्थ यात्रा से निव्रती लेकर पुनः दिल्ली आना चाह तथा इसकी सूचना प्रथ्विराज चौहान को मिली प्रथिवराज चौहान पहले से ही अनंगपाल की तीनों संतानों को लेकर दुखी था क्योकि उनके सुख चैन एवं राज तिलक के प्रति मन और अधिक लालच में घुस रहा था तथा उसने पहले से ही नाना जी के खे हुए वाक्यों किसी को भी राज्य में मत आने देना वाला अधर मानकर अपने उद्देश्य पूरा करना चाहता था | उधर महाराज अनंगपाल जी अपने राज्य की सीमा तक पुत्रों पत्नी एवं सेवकों सहित आगये थे तथा एक सेवक को प्र्थिविराज द्वारा उनके स्वागत करके राज्य में प्रवेश करने की तयारी के लिए व्याकुल हो रहे थे उधर सेवक स्वागत की तैयारिया सम्बंधित सुचना लेकर वहां पहुंचा | इस प्रकार कि सुचना सुनकर प्रथ्विराज चौहान हंस पड़ा | नाना जी लगते है पागल हो गये है उन्होंने ही तो कहा था कि बेटे यह राज्य तेरा है यहाँ किसी को भी मत आने देना |
मैं अप इनको कैसे आने दूं | इस प्रकार कि सुचना लेकर सेवक उदास होता हुआ महाराजा अनंगपाल जी के पास पहुंचा तथा सारी बात बताई | यह सब सुनकर एक बार तो अनंगपाल दुखी हुए लेकिन महारानी ने जब यह कहा कि हे पति देव अपने दुहिते के मन में थोडा पाप घुस गया है | वह इस राज्य को छोड़ना नहीं चाहता इसलिए उन्हें इस दिल्ली कि गद्दी पर उतराधिकारी नियुक्त कर हम लोग अपनी प्रजा सहित यहाँ से निकल जायेंगे और एक अन्य राज्य स्वतंत्र राज्य कि स्थापना करेंगे | रानी के कहने पर उनहोंने सेवक को भेजकर प्र्थिविराज चौहान को बुलाया और कहा कि एक बार हमे अतिथि मानकर स्वागत सहित अपने दरबार में ले आओ वहा पर राजतिलक देकर हम लोग यहाँ से निकल जायंगे | इस प्रकार से प्रथ्विराज चौहान ने लिखित में लिखवा लेने के बाद स्वागत के साथ ही उनको अतिथि गृह में लगये | अगले दिन प्रात: होते ही रजा अनंगपाल जी राजा महाराजा को पांच दिन आमंत्रित किया | तथा प्रथ्विराज चौहान को राजतिलक देकर अपनी पत्नी तथा पुत्रों सहित निकर ही रहे थे कि दिल्ली की प्रजा ने कहा की हम लोग भी आपके साथ चलेंगे | महाराज के लाख कोशिशे की लेकिन उन्होंने भी हट नहीं छोड़ी और वहां समस्त जनता ने प्रस्थान किया | इस प्रकार से दिल्ली छोड़ने के बाद वे अजमेर के पास स्थित नरेना गये तथा अपने अलग राज्य की स्थापना की और वहां वह बड़ी ख़ुशी के साथ राजा अनंगपाल एवं उनकी प्रजा रहने लगी | उधर मुहम्मद गोरी ने जयचंद्र के साथ मिलकर 18 वी बार प्रथ्विराज चौहान पर आक्रमण कर दिया | यह युद्ध तीन माह तक चला तथा प्रथ्विराज चौहान को हराकर बंदी बना दिया और वहां से कबूल कंधार ले गया | वहां लेजाकर प्रथ्विराज चौहान की आँखें फोड़ कर काल कोठरी में दाल दिया | जहाँ पर उनसे कोई भी नहीं मिल सके लेकिन प्रथ्विराज चौहान के राज कवि एवं बचपन के साथी चन्द्र कवि वरदाई ने सुना की प्रथ्विराज चौहान को मुहम्मद गोरी काबुल कंधार ले गया है तब चन्द्र कवि वहां पहुंचे और अपने राजा को देखकर बहुत दुखी हुए | चन्द्र कवि ने बदला लेने की सोची और बादशाह को कहा की प्रथ्विराज अन्धा होते हुए भी निशाना लगा सकने की बात कही बादशाह बात को अनहोनी समझ कर हंस पड़े | इधर इस हंसी को देखकर कवि आग बबूला हो रहे थे | एक बार पीर कहा अगर आपको विशवास नहीं हो तो परीक्षा लेकर देखले इस बात पर बादशाह सहमत हो गया और परीक्षा लेने के लिए सात तवे लोहे के बांध दिए और बादशाह चार कोस ऊपर बैठ गया | उस समय राज्य के कई योध्धा इकठ्ठे हुए थे तथा वहां पर विराजने के बाद बादशाह कहने लगे कि क्या अंधे भी निशाने लगाने लगे है ?
लोगों की भीड़ को देखकर चन्द्र कवि ने कहा : चार भौश चौविश गज अंगुल अष्ट प्रमाण | ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान ||
इतना सुनते ही प्रथ्विराज चौहान के तरकश से तीर ऐसे निकला जैसे महाभारत के अर्जुन का तीर उस मछली की आँख भेदने की लिए निकला तथा मुहम्मद गोरी को मार डाला | प्रथ्विराज के हाटों मुहम्मद गोरी को मरवाकर अंत में दोनों ही काबुल कंधार में ही मर गये | यह खबर जब अनंगपाल जी को मालूम चली तो वे दुखी रहने लगे और अंत में राजा अनंगपाल जी का देहांत हो गया | मृत्यु के बाद अनंगपाल जी की पांच पीढ़ी नरेना में रहीं | श्री अनंगपाल जी से पांच पीढ़ी पैदा हुए रणसी जी की संताने वहीँ पर रह रही थी जबकि बाकि के पुत्र ग्वालियर, हरियाणा एवं तवरावती आदि जाकर रहने लगे थे | उनके घर आज भी वहां रह रहे है जबकि रणसी जी के आठ पुत्र हुए जिनके नाम अजमल जी, राजसिंह जी, सलारसिंह, गजेसिंह, मोरजी, केशपालजी, नेणजी तथा धनरूपजी थे |
इशार रणसी जी ने पहले से ही आतंक मचा रखा था और जो भी मुसलमी व्यापारी देखता उसे लूट लेते थे | मगर समय ने चक्र ऐसा खाया कि बादशाहों का जमाना गया और धार्मिक झगडे अपनी सीमा पर कर चुके थे | मुल्ला व काजी बादशाह को हमेशा रणसी जी के बारे में बहकते थे और कहते थे कि रणसी जी अपने इस्लाम धर्म में रोड़ा अटकते हैं लेकिन कुछ ही दिनों बाद रणसी जी ने मुसलमानी वेशभूषा में एक कुटिया में निवास करने वाले साधू के साथ दुर्व्यवहार किया और साधू ने कोढ़ निकलने का श्राप दे दिया | इधर बादशाह ने नरेना पर कई बार अकर्मण किये लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी | जैसे जैसे समय गुजरता गया साधू द्वारा दिया हुआ श्राप सत्य होने लगा रणसी जी के शरीर में जगह जगह गांठे होने लगी और धीरे धीरे पूरा शरीर कोढ़ रोग से भर गया | वे दुखी होकर अपने घर से साधू कर वेश धारण कर निकल गये | जब पीड़ा से करहाते हुए जगह जगह ठहरते हुए अपने इष्ट के दर्शन करने को निकल गये | उन्होंने जगह जगह अपने इष्ट देव द्वारिका पूरी की यात्रा की तथा एक दिन एक पनघट के पास खड़े अपनी पीड़ा से चिल्लाने से उनका गला भी रुंध गया | इतने में पनघट पर एक स्त्री पानी भरने आई उसके घड़े से एक बूँद जल रणसी जी के शरीर पर आकर गिरी और पीड़ा में कमी का अनुभव मिला लैब रणसी जी ने उस नारी से पूंछा तुम कौन हो ? किस घर की नारी हो ? तुम्हारा घर कहाँ है ? इतना पूंछने पर नारी जाति स्वभाविक लज्जा एवं अपरिचित यात्री से वार्तालाप करने में अपने परिचय पता देना लोक मरियादा की दृष्टि से सामयिक भाव अनुचित समझ कर कोई उत्तर नहीं दिया | जो एक कुलीन नारी के लिए स्वभाविक गुण है | जब वह नारी पनघट से पानी लेकर चली तो रणसी जी भी उसके पीछे पीछे चल पड़े और घर पहुंचकर खिवण जी नमक एक संत परवर्ती के एक सज्जन से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए तथा ज्ञात हुआ की वह खिवण जी की स्त्री थी |
खिवण जी ने उनका आदर सत्कार किया रणसी जी ने भी अपनी दुःख भरी कहानी सुनाई जिसको सुनकर खिवण जी की आँखों में आँसू आगये | रणसी जी ने अपने दुःख की निव्रती का उपाय पूंछा तब खिवण जी उन्हें ऋषि के आश्रम ले गये और इन्हें बहार खड़ा करके खुद स्वामी जी के पास पहुंचे और नमस्कार किया तब समय ऋषि प्रसन्न हुए और ऋषि ने कपिल गौं का दूध दुहाय और खापर में लेकर कुछ स्वं पिया तथा बाकि खिवण को देखकर कहा की इसे पीले | तब खिवण ने कहा महाराज मेरा एक साथी बहार खड़ा है आपकी आज्ञा हो तो मैं उसे अन्दर ले आऊ | यह सुनकर ऋषि ने कहा भक्त मेरे पास आने के लिए किसी की कोई रोकटोक नहीं है परन्तु गुरु द्रोही को नहीं लाना और तुम दोनों इस दूध को पीलो | आज्ञा पाकर खिवण जी रणसी जी को बुलाकर अन्दर ले गये और मिलकर दोनों ने दूध पिया | बस उस दूध को पीते ही रणसी का कोढ़ दूर हो गया | शरीर का रंग रूप बदलते ही समय ऋषि ने रणसी को पहचाना और क्रोध में गरज कर बोले खिवण तुमने बड़ा अपराध किया है इसका फल दोनों को भोगना होगा | करोति के आरा से कटकर एक साथ मरे जाओगे | इस प्रकार का श्राप सुनकर खिवण जी भय से कांपते हुए बोले हे ! गुरुदेव मैंने भरी अपराध किया मुझे माफ़ करो मैं आपका शरणागत भक्त हूँ
संसार में मेरा रक्षक नहीं है आप क्रपा करो खिवण की पीड़ा सुनकर समय ऋषि ने कहा भगतों मैं श्राप को वापिस नहीं ले सकता हूँ | लेकिन प्रभाव धरा बदल दी है |
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